भीष्म का जन्म और प्रतिज्ञा – निष्ठा और धर्म का संकल्प
महाभारत के इतिहास में भीष्म पितामह का चरित्र निष्ठा, धर्म और त्याग का सर्वोच्च उदाहरण है। उनका जन्म देवव्रत के रूप में हुआ, पर उनकी महान प्रतिज्ञा ने उन्हें "भीष्म" बना दिया — वह व्यक्ति जिसने अपने पिता की खुशी के लिए सिंहासन और विवाह दोनों का त्याग कर दिया। यह कथा मानव इतिहास में त्याग और वचनबद्धता का सबसे बड़ा उदाहरण मानी जाती है।
"Train With SKY" के साथ इस अध्याय में हम जानेंगे कि कैसे एक युवराज ने अपने पिता के प्रेम के लिए संसार के सभी सुखों का त्याग किया और एक ऐसी प्रतिज्ञा ली जिसने उन्हें अमर बना दिया।
देवव्रत का हस्तिनापुर आगमन
गंगा द्वारा दिव्य शिक्षा प्राप्त करने के बाद देवव्रत हस्तिनापुर लौट आए। उनके अद्भुत पराक्रम, ज्ञान और सौंदर्य ने सम्पूर्ण हस्तिनापुर को मंत्रमुग्ध कर दिया। राजा शांतनु अपने पुत्र को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें युवराज घोषित किया।
देवव्रत की विशेषताएँ
शिक्षा: वेद, उपनिषद, धनुर्वेद में निपुण
युद्ध कला: परशुराम जैसे गुरुओं से शिक्षा
राजनीति: अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र में पारंगत
चरित्र: धर्मपरायण, न्यायप्रिय और विनम्र
राजा शांतनु का द्वितीय प्रेम
एक दिन राजा शांतनु यमुना तट पर घूम रहे थे जब उनकी भेंट एक मत्स्यगंधा नामक सुंदरी से हुई। वह एक निषाद कन्या थी जिसके शरीर से मछली जैसी सुगंध आती थी। राजा उस पर मोहित हो गए।
मत्स्यगंधा के पिता (निषादराज) ने शर्त रखी कि राजा शांतनु मत्स्यगंधा से विवाह कर सकते हैं, परंतु उनसे उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी होगा। राजा शांतनु इस शर्त को मान न सके और उदास होकर हस्तिनापुर लौट आए।
राजा की दुविधा
राजा शांतनु देवव्रत से अत्यधिक प्रेम करते थे और उन्हें ही उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। परंतु मत्स्यगंधा के प्रेम ने उन्हें व्याकुल कर दिया था। वे इस दुविधा में थे कि किसी एक को कैसे चुनें — या तो अपने प्रेम को त्यागें, या अपने पुत्र के अधिकारों को।
देवव्रत की जिज्ञासा और सत्य का पता चलना
देवव्रत ने अपने पिता के उदास चेहरे को देखा और उसका कारण जानना चाहा। जब उन्हें सत्य का पता चला, तो वे तुरंत निषादराज के पास पहुँचे। उन्होंने निषादराज से कहा — "मैं स्वयं सिंहासन का त्याग करता हूँ, अब आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिता से कर सकते हैं।"
"नाहं राज्यं ग्रहीष्यामि न च भोक्ष्ये सुखानि च। पितुः प्रियार्थं सर्वस्वं त्यक्तुमुद्यतचेतनः॥"
– देवव्रत
(मैं न तो राज्य ग्रहण करूँगा और न सुख भोगूँगा। पिता की प्रसन्नता के लिए मैं सब कुछ त्यागने को तैयार हूँ।)
महान प्रतिज्ञा – भीष्म प्रतिज्ञा
निषादराज ने कहा — "हे देवव्रत! आप तो त्याग कर रहे हैं, पर आपके पुत्र भविष्य में दावा कर सकते हैं।" यह सुनकर देवव्रत ने वहाँ उपस्थित देवताओं को साक्षी मानकर इतिहास की सबसे महान प्रतिज्ञा ली:
भीष्म की दोहरी प्रतिज्ञा
"प्रथम: मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा और कभी विवाह नहीं करूँगा।
द्वितीय: मैं सदैव हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा करूँगा,
चाहे कोई भी उस पर बैठे।"
इस प्रतिज्ञा को सुनकर आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई और देवताओं ने उच्च स्वर में कहा — "भीष्म! भीष्म!" (जिसका अर्थ है 'भयानक' या 'अद्भुत')। तभी से देवव्रत "भीष्म" के नाम से प्रसिद्ध हुए।
प्रतिज्ञा के तत्काल परिणाम
भीष्म की इस महान प्रतिज्ञा के तुरंत बाद कई चमत्कारिक घटनाएँ घटित हुईं:
| घटना | परिणाम |
|---|---|
| देवताओं की वाणी | "भीष्म" नाम की उत्पत्ति |
| पुष्प वर्षा | दिव्य स्वीकृति का प्रतीक |
| राजा शांतनु का वरदान | इच्छामृत्यु का वर |
| निषादराज की सहमति | मत्स्यगंधा का विवाह |
वरदान का महत्व
राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर भीष्म को इच्छामृत्यु का वरदान दिया — वह जब तक चाहें, तब तक जीवित रह सकते थे। यह वरदान भीष्म की निष्ठा और त्याग के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक था।
मत्स्यगंधा से सत्यवती का उदय
मत्स्यगंधा का विवाह राजा शांतनु से हुआ और उनका नाम सत्यवती पड़ा। सत्यवती से राजा शांतनु के दो पुत्र हुए — चित्रांगद और विचित्रवीर्य। भीष्म ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए इन दोनों की देखभाल की और उन्हें योग्य उत्तराधिकारी बनाया।
वंश वृक्ष का विकास
शांतनु के पुत्र
भीष्म (देवव्रत): गंगा पुत्र, प्रतिज्ञाबद्ध
चित्रांगद: सत्यवती पुत्र, युवावस्था में ही युद्ध में मारे गए
विचित्रवीर्य: सत्यवती पुत्र, हस्तिनापुर के राजा बने
प्रतिज्ञा के गहन अर्थ
भीष्म की प्रतिज्ञा केवल दो वाक्यों में सीमित नहीं थी — इसमें गहन दार्शनिक और नैतिक अर्थ निहित थे:
पितृभक्ति का चरम
भीष्म ने अपने पिता की खुशी के लिए न केवल राज्य, बल्कि गृहस्थ जीवन के सभी सुखों का त्याग किया। यह पितृभक्ति का सर्वोच्च उदाहरण है।
निष्काम सेवा
उन्होंने बिना किसी स्वार्थ के हस्तिनापुर की सेवा की। उनकी सेवा निष्काम और निस्वार्थ थी।
धर्म की रक्षा
भीष्म ने सदैव धर्म का पालन किया, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न रही हों।
वचनबद्धता
उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का आजीवन पालन किया, चाहे इसके लिए उन्हें कितना भी कष्ट क्यों न सहना पड़ा।
महाभारत के इतिहास में महत्व
भीष्म की प्रतिज्ञा ने महाभारत के इतिहास को गहराई से प्रभावित किया:
- वंश विस्तार का संकट: भीष्म के विवाह न करने से वंश आगे बढ़ाने में समस्या आई
- व्यास का आह्वान: विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद व्यास जी को बुलाना पड़ा
- धृतराष्ट्र और पाण्डु का जन्म: नियोग द्वारा वंश का विस्तार
- कौरव-पांडव संघर्ष: भीष्म की उदासीनता ने संघर्ष को बढ़ावा दिया
- युद्ध में भूमिका: भीष्म का कौरवों की ओर से युद्ध लड़ना
ऐतिहासिक दृष्टिकोण
भीष्म की प्रतिज्ञा के दूरगामी परिणाम हुए:
- हस्तिनापुर को एक महान संरक्षक मिला
- कुरुवंश का विस्तार संभव हुआ
- महाभारत युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई
- धर्म और नीति के नए मानदंड स्थापित हुए
- त्याग और बलिदान की नई परिभाषा लिखी गई
आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता
भीष्म की प्रतिज्ञा आज के युग में भी हमें महत्वपूर्ण शिक्षाएँ देती है:
| शिक्षा | आधुनिक अनुप्रयोग |
|---|---|
| वचनबद्धता | व्यवसाय और व्यक्तिगत जीवन में वादों का पालन |
| त्याग | स्वार्थपरता के युग में दूसरों के लिए त्याग |
| निष्ठा | संस्थाओं और मूल्यों के प्रति निष्ठा |
| धैर्य | तत्कालिक संतुष्टि के युग में धैर्य बनाए रखना |
| नेतृत्व | स्वार्थरहित नेतृत्व और सेवा भाव |
दार्शनिक विश्लेषण
भीष्म की प्रतिज्ञा को विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है:
कर्मयोग का उदाहरण
भीष्म ने बिना फल की इच्छा के अपना कर्तव्य निभाया। यह गीता में वर्णित कर्मयोग का श्रेष्ठ उदाहरण है।
धर्मसंकट
उनका जीवन धर्मसंकटों से भरा रहा — पिता का धर्म बनाम राज्य का धर्म, प्रतिज्ञा बनाम न्याय।
मुक्ति और बंधन
इच्छामृत्यु का वरदान मुक्ति थी, पर प्रतिज्ञा उनके लिए बंधन बन गई। यह मुक्ति और बंधन का द्वंद्व दर्शाता है।
निष्कर्ष
भीष्म का जन्म और उनकी प्रतिज्ञा महाभारत की नींव का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। उन्होंने न केवल अपने पिता के प्रेम के लिए सब कुछ त्याग दिया, बल्कि एक ऐसा आदर्श स्थापित किया जो सदियों तक मानवता के लिए प्रेरणा बना रहेगा।
भीष्म की कथा हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम स्वार्थरहित होता है, वचनबद्धता व्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति है, और त्याग ही सच्ची महानता की पहचान है। अगले अध्याय में हम जानेंगे कि कैसे भीष्म ने हस्तिनापुर के लिए अपनी सेवाएँ दीं और कैसे उनके निर्णयों ने महाभारत की दिशा तय की।
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